गुरुवार, १२ जुलै, २०१८

बरखा पिकनीक

‘‘उफ् क्या तुम्हे बारीश बिलकुल पसंद नहीं. छत्री, जर्किन, रेनकोट इतना सबकुछ लेकर आयी हो. इस ब्रीजसे पानी का बहाव देखना तो बहाना है. असल में तो मुझे तुम्हें यू कसकर पकडके आसामान को बरसता देखना होता है.  ’’
‘‘सो. देखेंगे. मैंने कहॉंं मना किया.’’
‘‘पर तुम भिगती कहॉं हो. अपने उपर ये इतने परक जो चढा लेती हो. बारीश में भिगने का अपना एक मजा होता है वो रेनकोट के भीतर या छत्री के नीचे नहीं आता.’’
‘‘मैंने तुम्हे तो मना नहीं किया ना. कुदरत की आगोश में खोकर तुम जो हर बुँद को अपने अंदरतक महसूस करते भीगते हो ना..तुम्हारे उन हसीन भीगे एहसासों को देखना मुझे तुम्हारा और भी दिवाना बनाता है पर मुझे भीगनसे सर्दी होती है, मैं क्या करूॅ?’’
‘‘रहने दो, इसका तो बस एकही मतलब है, हम कभी बारीश का त्योहार नहीं मना सकते. ’’
‘‘क्यों नहीं ? हां, मुझे सर्दी होती है. पर मैंने ये कब कहॉं की मुझे बारीश ही पसंद नहीं. मुझे बारीश भी पसंद है और तुमभी.  कहॉं जायेंगे बताओ, तुम्हारे बाईकपर तुम्हे लिपटकर बैठूंगी. फिर तुम चाहे जितने बारीशे घुमा ले आओ.’’
‘‘और फिर तुम्हारी सर्दी...ठंठ लग गयी या बिमार हुई तो...रहने दो.’’
‘‘अजी सरकार, मोहब्बत में सामनेवाले को तवज्जू देने का मतलब हमारी तमन्नाओंको गला घोटना नहीं होता है.’’
‘‘हां, बिलकुल वैसेही सामनेवाले की जान भी जोखीम में डालना नहीं होता.’’
दोनों की बात आपसमे टकरा गयी. दोनो ही हंस पडे. ब्रीज से पानी का बहाव देखते दोनों ही अपनी बरखा पिकनीक का प्लॅन बनाने में जुट गये.

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