बुधवार, ११ जुलै, २०१८

इश्क मे अजनबी...

स्टेशनपर उसकी राह तकते तकते वो परेशान हुवा था. लोकलके टिकट कतार से बचने के लिये उसे ऍप से टिकट भी बुक करा दी थी, फिर भी पता नहीं वो देर क्यो कर रही थी? उपर से उसके पेट के चुहे बाहर निकलने तडफ रहे थे. आखीर वो आ गयी. चर्चगेट से दादर आते आते उसने दोपहर के साडे तीन बजा दिये थे. फिर उन्हे इकठ्ठे चार बजे एक मिटींग भी पोहचना था और दोनों को ही अपने पेट के चुहों का खयाल करना था.
दादर स्टेशन बाहर के हाटेल में दोनो बैठ गये.
वेटर ने ऑर्डर पुछा.
''जल्दी क्या मिलेगा... ठीक है तो पाव भाजी लेलो. तुम क्या खाओगी?''
"जल्दी में तो पाव भाजी के अलावा उडदवडा सांबार ही नजर आ रहा है, वो ही ला दो भाई."
वेटरने अॉर्डर टेबल पर लगा दी.
"और एक कोक भी लेना." उसने जैसे ही ये कहा लडकीने चौंक कर देखा.
जैसे वो नॉनव्हेज हो और लडकेने कोई घासफुस की ऑर्डर दी. फिर भी कहा किसी ने कुछ नहीं.
वेटर ने दोनों के बीचोबीच कोक रख दी.
"कोक का नाम सूनते ही इतनी हैरान क्यों हुई? तुम भी पिलो; मना थोडी कर रहा हूँ."
"मुझे नहीं पिना है. मैने वैसी प्रतिज्ञा ली थी."
"क्या? प्रतिज्ञा? कब?" अब उसने उसे हैरानियात से देखा. मन में हंस भी पडा पर जतया नही.
"कालेज में... खैर छोडो तुम पिलो."
"कोक ना पिने की भी प्रतिज्ञा होती है क्या? वैसे क्यो ली थी ये प्रतिज्ञा?"
"रहने दो. तुम फिर पियोगे नहीं."
"तुम बताओ तो सही. मुझपर किसी बात का असर नही होगा. मैं एक झपेट मे निगल लूंगा."
"अच्छा, तो सुनो. कॉलेज मे एक संस्था आयी थी. उन्होंने एक डॉक्युमेंटरी दिखाई थी. जहां यह कोक बनानेवाली फॅक्टरिया खडी थी, वहाँ फॅक्टरी की वजहसे उन गावो को ही पिने का पानी नही मिल रहा था. उपरसे ये कोक कंपनिया गंदा पानी नदियो मे मिलाती थी. गाववालो के सफेद चावल भी काले पकते थे. कितने लोगो की उंगलिया झड चुकी थी. किसीका पेट फुल गया था. बच्चे तो बिमारी लेकर ही पैदा हो रहे थे. बस! तब हमे शपथ दिलायी की, ऐसे कोक हम नहीं पियेंगे. बस, तबसे छूंती भी नहीं."
इतना कह कर वो अपने उडद वडा सांबार मे डूब गयी.
उसके दिल में ख्याल आया, 'हद हो गयी! कॉलेज की बात अबतक पकड के बैठी है? ऐसेही मुझसे कोई वादा कर ले तो...' उसने दिल की वह बात वही छोड दी. फिर गला साफ करते हूवे उसने लडकी को पुछा,
"अब मैं क्या करु? चपटालू या.."
"तुम्हारी मर्जी. वैसे मुझे पुंछ रहे हो तो मना ही करूंगी."
"तुम अपनी इन प्रतिज्ञाओं के चक्कर मे मेरे पैसे बचाओगी या जेब खाली करोगी?" उसने झुंझला कर कहा.
वो हाथ धोने के लिये खडी हुई. मुस्कुरा कर बस उसने इतना ही कहा,
"आजमा लो... अभी थोडा और रास्ता भी तो इकठ्ठे चलना हैं." वो वॉश बेसिन के तरफ जैसे ही मुड गयी. वह समझ गया की, इश्क मे इतना भी अजनबी रहना बेवकुफी होती है!!

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