बुधवार, १६ सप्टेंबर, २०२०

प्रिय,

पहले मुझे लगता था की मैं जो कुछ भी लिखती हूँ उसकी इन्सिपीरेशन तुम हो...तुमसे ही कुछ कहने के लिए लिखती हूँ..तो जैसे वजह भी तुम हो..तुम मेरे लिखे हर शब्द का हिस्सा हो..काफी अटूट सा हिस्सा..! जैसे कागज पर लिखे शब्द..कोई चाहे जितना उन्हे अलग करने की कोशिश करे, वो अलग ही नहीं होते. शब्द मिट जाते है पर कागज से छुट नहीं जाते..अपने ट्रेसेस, अपनी छाप कागजपर रखते ही है..सोचती थी बिलकुल ऐसे ही है, तुम्हारा मेरे लिखने से रिश्ता..मिट नहीं सकता..पर आज थोडा टटोलकर देखा खुदको तो लगा की तुम कब छुट गये ये पता भी नहीं चला..साथ चलते चलते कब दो राहोंसे चलने लगे समझ नहीं आया. मैंने ढुंढा की कहीं तो तुम्हारे ट्रेसेस होंगे जैसे शब्दोंके कागज पर मिटकर भी होते है..

यकायक सोचती रह गयी. लिखती तो मैं आज भी हूँ. यु कहो की लिखती हूँ तभी तो हूँ. मुझसे मेरे लिखने को अलग कैसे किया जा सकता है..पर अब मैं तुम्हे कुछ कहने वास्ते नहीं लिखती..शायद इस मोड पर आते आते तुम मेरे न कहे को भी समझ जाते हो..फिर भी लिख रहीं हूँ, निरंतर..! नजाने कब मैं इतनी स्वतंत्र हुई की लिखने की किसी वजादान की कोई जरूरत ना रहीं..शायद यही फर्क है कागज और शब्दोंके बेजान वफा में औरे मेरे-तुम्हारे रिश्ते में..शायद साथ चलते चलते हम बेहतर जान गये..हमे और बेहतर जानने के लिए साथ रहने की जरूरत नहीं..तभी तो मैं लिख रही हुं, बंजारों की तरह..और तुम..तुम जमिन में गाड़ कर खुद को उगा रहे हो मजबूत वृक्ष की तरह...

कोणत्याही टिप्पण्‍या नाहीत:

टिप्पणी पोस्ट करा

सुफियान अन त्याचे मित्र

गोष्ट तशी गंमतीची.   माझ्या घरासमोर राहाणारी दोन छोटी मुल माझ्या तीन वर्षाच्या सुफियानचे मित्र आहेत. त्यातील छोटा हा सुफियानपेक्षा फक्त ...