पैदा जो हुई थी वो
कोई कागज ना बना
गुजरी जो जमाने से वो
जमाने को पता भी ना चला
इसी दौर की बात
कर रही हूँ साहिब
साहिब ए वतन ने
कभी उसका हाल भी ना जाना
हकीकत में, उसके हक से, हकीकत से
आपने बस मुँह ही है फेरा
क्या जानते हो,
उसने कितनी खायी थी ठोकर
भटकती रहीं थी कहाँ कहाँ वो दरबदर
कमीयोंसे उसका गहरा वास्ता था
कफन भी उसका अधूरा ही था
कोई नहीं जानता
लहू के एकएक बुँद को सिंचा था उसने
बुँद भर भी तवज्जू ना दी थी पर किसीने
मेहनत तो जिंदगीभर खूब करती रही वो
दिन हो या रात जलती-पिसती-पकती रही वो
जमाने ने उसे बिलकुल औरत ही माना
मोहब्बत भी उसके लिए गवारा ना समझा
कहीं नहीं दर्ज हुये
उसके अरमानों की राख
उसके चमडेसे चिपका दर्द
न किसीने पढी उसकी
बेबसी, बेहाली की अर्ज
किसीको कभी कुछ न पडी
वो है, या है भी नहीं
घुँट घुॅट के जी रहीं थी
या जी रहीं थी घुॅट घुँट
जिंदा थी वो जब तक
किसी लाश से कम न थी
जान उसकी मरकर
मिट्टी को भी मालुम न हुई
तो तुम कैसे शिनात करोगे?
पैदा जो हुई थी वो
कोई कागज ना बना
गुजरी जो जमाने से वो
जमाने को पता भी ना चला
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