मंगळवार, १७ जुलै, २०१८

एक बन मस्का, एक चाय

आज फिर,
एक बन मस्का, एक चाय
ऑफिस देरी करने की तेरी राय

तुझे  याद है, मुझे तो खासा याद है...

बीच सडक वो चाय का ठेला
सिग्नल पे खडी झांसी की रानी
पास के पूल से बहता नदी का पानी
पडोस मे खडी एक  प्रेमीयों की बगिया
बगिया बुलाके कॉलेज में तुने जलील किया..
वक्त बिता...पर उस किस्से का दर्द ना घटा
बेरूखी का असार  बल्की बढता गया
:
क्या कहु..
आज फिर वही सिग्नल का चौराहा
सिग्नल पे खडी झांसी की रानी
पास के पूल से बहता नदी का पानी
बेयकीनी से तुझे मुझे देख रहे

उन्हे अब क्या क्या बताऊ
अजनबी सा लगा था अर्सो बाद मिलना
गिले शिकवे तो बनी थी भुला अफसाना
फिर क्या हुआ के तू बदल गया...
अपनी मोटी मोटी आंखों से तेरा मुझे तवज्जू देना
मुझे अपनी तस्सुवर मे अजीज करना
बिना तेरे कहे तेरी आवाज मेरे कानोमें गुंजना
तेरा बेझिझक ऐसे मेरे कांधेपर सर रखना
मेरी गर्दन पर हलकेसे कोई शरारत करना
यू बारीश का बेअदब  टुटके बिखरना
मेरा भिगना तेरे निगाहों से महसूस करना
अब और तुझसे नफरत के मैं लायक नहीं रही
अब और तुझसे दुरी रखना मुझे मुमकीन ना रहा...

ये वाकिया कैसा बना..पता नही,
खफा रहना था ता उम्र तुझसे
उम्रे दराज के लिये तुझ से जुड गयी..

आज फिर,
एक बन मस्का, एक ही कप चाय
ऑफिस देरी करने की
उफ आज तो न जाने की ही तुम्हारी राय..

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