सोमवार, १९ मार्च, २०१८

बसंत की शामो में


बसंत की शामो में
अजबसी उमडती खलबली
दिल बैठा बैठा एहसास
तुझे दिये दुखों की
मेरी पीडा आकाश
बसंत की शामो मेें
बहती हवाये उदास
ले आती है तेरा खयाल
मेरे वर्तमानसे टकराने
और मैं सुंध सुंध.. बेहाल
छुटा जबसे तेरा हात
हरबार, वफादार
बसंत की शामें रही
बाकी महिने जो दबोचके रखा
उन जज्बतोंको खिंच के लायी
जानती हूँ
दिल टुटा है तेरा
दर्द भी दिया बेशुमार
न जानेगा पर तू,
सागर बसा है कब से, मेरी
मॅुंद अँखियों के कगार
कहूँ किसे रंज दिलका
गम के दामन से लिपटी हूँ
होठ तो तभी सिल दिये
जब तेरे इश्क के वुसत (स्पेस)से
पलटकर निकली
हां तू कोसता होगा मुझे
मेरी बेवफाई के लिए
मैं दुवायें देती हूँ
तुझे तेरे गुलशन के लिए
तेरी रूसवा की हजार शिकायते
सर आँखो पर
बस मुझे पत्थरदिल ना समज
कल की थी आज भी है मोहब्बत
पत्थरदिल तो रहा तेरा मेरा वक्त
दरख्वास्त, मुझे मेरे हिस्से का सुकून दिला दे
रोज रोज मरती हूँ,
जिने की उम्मीद थमा दे
कुछ ज्यादा नहीं मांगती
किसी गली, चौराहे, मोडपर
मुलाकात नहीं मॉंगती
पर वही कही मुस्कुरा देना,
पाक साफ..भले ही अजनबी जैसा..
शायद उसी के हवाले
मुजरीमोंवाला सुलूक
मुझसे मेरा बसंत करना छोड दे
बसंत की शामोंमे..
बिरहा की पीडा मे...

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