वो कमीझ
जो तूने छोडी थी,
मेरे घर, मेरे लिए
बारीश की वही
गिली खूशब, उसमें
आज भी बरकरार है..
उस रोज,
मिट ही जाती
जिस्मकी अदृश्य रेखाएँ
बदन की गर्माहट में
पर तू देर तक बस
मेरी कमर सहलाता रहा..
चुपचाप सा इतना ही तू
जिस्मानी होता रहा..
वो कमीझ
जो तूने छोडी थी,
जानबुझकर
मेरे घर, मेरे लिए
मै तो भूल गयी थी
माहवारी की भी वह
इकलोती मिठी याद (हो सकती है),
जो केवल उसीमे आज बरकरार है..
और बस उसी मे बरकरार है..
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