सोमवार, ९ जुलै, २०१८

याद

ऑफिस की सिडियोंसे
जब उतरती हुं अकेले
या चलती हूं उन रस्तोंपर
जहॉंसे हम साथ गुजरते थे
तुम आसानी से तनहा कर देते हो
अपने ना होने के एहसास से

तुम्हे याद है,
मेरे कुछ कहने से पहले
तुम समझ जाते थे
मेरे साथ क्या है मसला
अब जो मसला है मेरा
तुमसे ही जुडा, बताव
कैसे मिटाये ये फासला

बडी खुशमिजाज थी
हमारी दोस्ती
हसीन, गहरी, डिजेंडर
मैं तुम्हारी कानखिचाई मे जुटती थी
तुम मुझे इतमिनान से समझाते
मैं घंटो बतीयाती रहती
तुम गौर से सुनते थे
अब बता मेरे पेशानी मे
तुझसा दोस्त कहॉं से लिखू

उपर से सितम देख, ए दोस्त
बडा बेरेहेम है ये वक्त
तुम्हे भूलने पे मजबूर कर रहा है
जब की मैं रखना चाहू जतन
तुम्हे अपने ज़हन मे

कहते है समय बितने पर
जख्म भरते है
धीरे धीरे दर्द का दर्द
बेमालुम होता हैं

पर मैं खुद इस जख्म को
हवा देना चाहती हुं
तुम्हे अपने याद मे
जमा रखना चाहती हुं

कुछ तो होगा तेरे दोस्ती का
मेरे माजी पर असर
मैं आखरत तक तुम्हे
साथ पाना चाहती हुं

तुम दुनिया से रूठे हो
तो रूठे रहो..
मेरे जेहन से, यादोंसे
मिटने की इजाजत कभी ना मिलेगी
कह दो अपने वक्त से
नहीं पसीजेगा दिल
किसी भी वक्त…
या फिर कितना भी गुजर जाये...!

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